Saturday, December 25, 2010

khidkiyan

खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....
यूँ धुप को अपने पास बिठा के ...हवा से फिर बातें करना,
यूँ शाम को अपनी गोद में ले के, तारो को इक इक कर गिनना
ओस की बूंदों को अपनी अंजुरी में भर भर कर पीना,
अम्मा की जो डांट पड़े तो खिड़की पे जाके रोना......
बचपन की उस गागर में कितनी यादें भरनी थी..
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

नए परिंदों से मिलना, फिर उनके रंग में रंग जाना...
गर्मी की उस दोपहर में खाने की सुधबुध खो देना..
दद्दा के समझाने पर भी पांच मिनट कह के आना..
बरखा की उस नदिया में छोटू के नाव को तैराना..
इमली के उस पेड़ तले कितनी सौगाते आती थी...
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

वक़्त की गाड़ी पर घूमना तो मेरी आदत न थी....
फिर सारे रंग क्यूँ उड़ने थे ..गागर क्यूँ मेरी भरनी थी.....
यादें तो अब बची नहीं.. खिड़की बंद तो होनी थी....
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

1 comment:

Unknown said...

too good re mamu............