Sunday, October 30, 2011

तुम या मैं

यूँ मेरे दिल में क्यूँ तमन्ना होती ,
जो तुम हर जर्रे में ना होती...

मैं खुद को देखता रहता ,
जो तुम आईना होती.....

लफ्ज़  गिरते तो बहुत मेरे,
जो तुम असना होती.....

कब से बहके कदम क्यूँ मुड़े होते,
जो तुम कशिश ना होती.....


VEER

Sunday, October 16, 2011

फितरत

मैं अक्सर छत पे खड़े होके परिंदों को देखता रहता, 
सोचता आखिर कहाँ जाते हैं रोज, नई नई शक्लों में..... 

मैं कई मर्तबा हवा में हाथ लहरा देता, 
इक जवाब की आस में, जो कभी मिलता कभी नहीं....

मैं अक्सर काफिलों का नाम रखता, 
भीड़ में बुलाने की खातिर, मगर शायद नाम बदल जाते....

मैं कभी कभी उनके करीब होना चाहता,
दो पल जीने को, पर हरदम मुझे झिटक देते .....
शायद मेरे रंग अलग था.................................

 VEER



Thursday, August 25, 2011

कण कण में हुए व्याप्त संत तुम याद बहुत अब आओगे.....

Wednesday, August 10, 2011


‎इक शाम के झोके ने धक्का मार के गिरा दिया,
ये शाम वही थी जिसको गढ़ा था तपती दोपहर में.....

टूट कर बिखरे हर हिस्से को जुटा लिया कतरा कतरा,
हर कोशिश नाकाम हुयी जुड़ न पाया कतरा कतरा.......

अंधियारी जब रात हुयी मुझे ओस की बूँदें गढ़ने लगी,
जोड़ गांठ के जब उकरा मैं बदल गया कतरा कतरा ......

Sunday, July 24, 2011

धुंधली यादों में...

जिंदगी यूँ तन्हा गुजरेगी, 
तुम्हारी यादो के गलियारों  में भटकते हुए,
उन तमाम तस्वीरों में कुछ ढूँढते हुए, जो शायद  धुंधली पड़ गयी थी.....
कभी सोचा न था ............

यूँ तो तुम्हारी सहेजी हुयी हर चीज़ में इक खामोश रागिनी को सुनता हूँ,
मगर सब कहते हैं कि अब मुझे सुनाई नहीं पड़ता है, शायद अब मुझे सन्नाटो की आदत सी पड़ गयी है...
अभी कल ही वो पुराने रिकॉर्ड निकाले थे, जो तुमने तोहफे में दिए थे.....
बहुत कोशिश की पर, शायद तुम्हारी तरह वो भी खामोश हो गए थे .............
जिंदगी यूँ तन्हा गुजरेगी, कभी सोचा न था ............

उस मकाँ में भी अब मुझे अच्छा नहीं लगता है,
जहाँ कभी तिनका तिनका जोड़ कर तुमने एक घोसला बनाया था, वो अब बिखर सा गया है...
वहां पिछवाड़े में लगे गुलाब भी अब महकते नहीं है,
शायद मेरी तरह उनको भी तुम्हारी आदत सी हो गयी थी......
जिंदगी यूँ तन्हा गुजरेगी, कभी सोचा न था....

अक्सर ही मेरे कदम उस तिकोने पार्क की तरफ चल पड़ते हैं,
मगर अब वहाँ गाड़ियों का शोर बहुत होता है, 
वक़्त की कमी मुझे अब भी रहती है, तुम्हारी यादो की उधडती सीवन की मरम्मत से ही फुर्सत नहीं मिलती है..
मगर अब कोई शिकायत नहीं करता है.....
जिंदगी यूँ तन्हा गुजरेगी, कभी सोचा न था....



VEER

Sunday, May 29, 2011

छुआ तो जाना आंसू था

इक बूँद जो आयी मेरे लब पे, छुआ तो जाना आंसू था..
थोड़ा नमकीन थोड़ा मीठा सा, स्वाद कुछ जाना पहचाना था ....
भूल गया था मैं इसको, क्यूँ याद यूँ आना बाकी था...
कह्कशो की बंद जुबाँ को, क्यूँ ऐसे ही खुलना था....
इक बूँद जो आयी मेरे लब पे, छुआ तो जाना आंसू था.............

विरह की वेदना को, गर ऐसे ही हँसना था....
तो अजल से बिछड़े इस मन को, तुमसे क्यूँ मिलना ही था...
इस कड़ी धूप में चल के , हमको तो यूँ भी जलना था.....
तो इस आंसू को क्या बात लगी, जो मुझे बचाने आया था...
इक बूँद जो आयी मेरे लब पे, छुआ तो जाना आंसू था.............

Contd ......................


VEER

Sunday, May 22, 2011

It's a song not a poem

इसे गाने के लिए खुद ही सूफियाना धुन भरने के कोशिश करे

नींद कहाँ सब्र कहाँ.....अये रब्बा ....कोई तो बताये मुझको कोई तो बताये...  
नींद न आये..रात भागी जाये.. नींद न आये..रात भागी जाये.. 
ये यादें क्यूँ मुझको ऐसे सताये...अये रब्बा ....कोई तो बताये मुझको कोई तो बताये...  
इन अंखियों की भाषा हम न जाने...कैसे न फिर हम दुनिया की माने.... 
लज्जा फिर ऐसे ही छलकती जाये.....
अये रब्बा ....कोई तो बताये कोई तो बताये... 

ढूंढ रहा मैं मन की बगिया ....खे कर अपने प्रेम की नैय्या ....
न जानू मैं मृग की तृष्णा , रेत है ये या है ये जल की वीणा ...
लबों को अब भी प्यास जलाये...
अये रब्बा ....कोई तो बताये मुझको कोई तो बताये... 
करवट बदले मन ये सोचे...सो भी रहा हूँ या ये भी हैं धोखे....
तारों को गिन कर रात कटी है...अब कुछ भी न क्यूँ मन को भाये...
अये रब्बा ....कोई तो बताये कोई तो बताये... 

जाग गए हैं अंखिया ये बोले....सोये ही कब थे मन ही जाने....
मन की ये ऐसी व्यथा अब किसको बताये....
अये रब्बा किसको बताये हम किसको बताये...
.अये रब्बा ....कोई तो बताये मुझको कोई तो बताये... 



VEER

Sunday, April 24, 2011

ओस की बूँदें

ओस की बूँदें जब पलकों को छू कर लबों को चूमती हैं, 
उन बूंदों को पीना बड़ा अच्छा लगता है;
खामोश नज़रें जब आँखों से मिल कर हौले से झुकती हैं,
उनका यूँ शरमाना बड़ा अच्छा लगता है,
ओस की बूँदें जब पलकों को छू कर लबों को चूमती हैं, .............

तेज चलता वक़्त जब तेरी जुल्फों से टकराकर रुक सा जाता है;
वो वक़्त का यूँ ठहरना बड़ा अच्छा लगता है;
मीठा मीठा शहद जब लफ्ज़ बनकर कानो में घुलता है,
वो लफ़्ज़ों का ये मीठापन बड़ा अच्छा लगता है;
ओस की बूँदें जब पलकों को छू कर लबों को चूमती हैं, .............

उजली सुबह जब अंगडाई लेकर मुस्कुराकर जगने को कहती है;
यूँ इस तरह जगना भी बड़ा अच्छा लगता है,
ढलती शाम जब हाथ थामकर साथ चलती है;
उनका यूँ हाथ थामना बड़ा अच्छा लगता है, 
ओस की बूँदें जब पलकों को छू कर लबों को चूमती हैं, .............


VEER

Sunday, January 23, 2011

जिंदगी मुझे था तुझ पे भरोसा


जिंदगी मुझे था तुझ पे भरोसा... बता तू खामोश क्यूँ है......
सब गिले शिकवे भुला कर तुझको था अपना बनाया....
दफन करके रूह को..रुसवा हुए सो अलग...
अब मुझे अफ़सोस है , क्यूँ  न समझा  मेरी तक़दीर को ...
गिला तो अब तुझसे ही है .ऐ जिंदगी...बता तू खामोश क्यूँ है...
जिंदगी मुझे था तुझ पे भरोसा......

हँसते हँसते दर्द सहकर मैंने तेरा घर सजाया....
अश्क पाए सोज़ खोयी, रंजिशे पाई बहुत सी....
अब तरस आता है मुझको, देख सूनी शाम को...
क्या दिया तेरी तिशनगी ने तुझको...मिला सूनापन ही ना.....
करम तेरा ही है ऐ जिंदगी बता तू मायूस क्यूँ है..
जिंदगी मुझे था तुझ पे भरोसा......

सांसे थी जब मेरी मद्धम तुमने मुझको आस दी..
जीने के जब बारी आई तुम ना मेरे साथ थी...
कण कण मेरा था तुझमें ही अब मन मेरा आजाद है...
छोड़ कर अपना बसेरा...... पंछी बनकर उड़ चला,....
छूने को आकाश है पर पलके मेरी नम हैं.....
गिला तो अब भी है....ऐ जिंदगी...बता तू खामोश क्यूँ है...
जिंदगी मुझे था तुझ पे भरोसा..........
......

VEER

Life Without Limits: Inspiration for a Ridiculously Good Life
Life as We Know It
Life Unexpected: The Complete First and Second Seasons