Saturday, December 25, 2010

khidkiyan

खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....
यूँ धुप को अपने पास बिठा के ...हवा से फिर बातें करना,
यूँ शाम को अपनी गोद में ले के, तारो को इक इक कर गिनना
ओस की बूंदों को अपनी अंजुरी में भर भर कर पीना,
अम्मा की जो डांट पड़े तो खिड़की पे जाके रोना......
बचपन की उस गागर में कितनी यादें भरनी थी..
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

नए परिंदों से मिलना, फिर उनके रंग में रंग जाना...
गर्मी की उस दोपहर में खाने की सुधबुध खो देना..
दद्दा के समझाने पर भी पांच मिनट कह के आना..
बरखा की उस नदिया में छोटू के नाव को तैराना..
इमली के उस पेड़ तले कितनी सौगाते आती थी...
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

वक़्त की गाड़ी पर घूमना तो मेरी आदत न थी....
फिर सारे रंग क्यूँ उड़ने थे ..गागर क्यूँ मेरी भरनी थी.....
यादें तो अब बची नहीं.. खिड़की बंद तो होनी थी....
खुली खिडकियों पे बैठना, यूँ तो मेरी आदत थी....

Sunday, December 19, 2010

Paagal Budhiya

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा हुआ करता था...उसमें एक बुढ़िया रहा करती थी ..
सारे नज़ारे देखा करती थी...पर कभी किसी से कुछ ना कहती थी..
कभी कभी मैं उसे खुद से बातें करते सुनता था..
शायद सबको पागल कहती थी...
कहती थी अपने बगीचे के फूलो से सबको प्यार होता है..
फिर दुसरे फूलो से क्या दुःख मिलता है....
सब उसको पागल बुढ़िया कहते थे....
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा हुआ करता था...उसमें एक बुढ़िया रहा करती थी ..

मेरा मन उस अँधेरे कमरे में जाने को बहुत करता था..
पर अम्मा मना करती थी, शायद बुढ़िया से डरती थी..
मैं बुढ़िया से कहता था ....काकी अँधेरा क्यूँ है...
काकी कहती बेटा जिंदगी की धूपमें बहुत अँधेरा है...यही याद रखने के लिए है...
मैं छोटा था ...मुझे कुछ समझ ना आता था ....मुझे भी लगा...बुढ़िया पागल है..
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा हुआ करता था...उसमें एक बुढ़िया रहा करती थी ..

आज मैं बड़ा हो गया हूँ, चार बातें सीख गया हूँ...
दुनिया के रंग में रंगा हूँ, कहता हूँ जिंदगी जी भर के जी रहा हूँ...
अब तो उस बुढ़िया की याद भी नहीं आती है, शयद वो पागल थी....
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा हुआ करता था...उसमें एक बुढ़िया रहा करती थी ..

आज चुप चाप कमरे में अँधेरा करके लेटा हूँ, आज बुढ़िया की याद आ गयी है..
अँधेरे का मतलब भी समझ गया हूँ....पर शायद देर हो गयी है...
वहां उस पिछवाड़े में अंधेरा कमरा तो आज भी है....पर वो बुढ़िया अब नहीं है...
जिसे सब पागल कहते थे.....

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा हुआ करता था...उसमें एक बुढ़िया रहा करती थी ..
सारे नज़ारे देखा करती थी...पर कभी किसी से कुछ ना कहती थी..


VEER

teri palke....



साँसे भी तेरी है, कैसे मैं जियूं भला....
धड़कन भी तेरी है, कैसे ये धडके जरा....
मुझको बता न तू , कुछ तो बता, कुछ तो बता....
बोलो ना बोलो ना, इक बार तो बोलो भला....
आओ ना आओ ना इक बार तो आओ जरा....
कुछ तो बता शोना, कुछ तो बता....

लेकर इन यादों को जाऊं मैं कहाँ कहाँ......
हौले से आकर तुम, सपनो को चूमो ना....
मेरे शोना तू आ, मेरे शोना तू आ मेरे शोना....
आओ ना आओ ना इक बार तो आओ जरा....
कुछ तो बता शोना, कुछ तो बता....

तेरी ही पलकों से देखूं मैं सारा समां.....
तेरी ही खुशबू से महके है सारा जहाँ...
तुझसे है ये ख़ुशी ....तुझमें हूँ मैं कही...

कह दो ना कह दो ना तुम ही हो मेरे शोना.....
मेरे शोना तू आ, मेरे शोना तू आ मेरे शोना....
आओ ना आओ ना इक बार तो आओ जरा...



VEER

Saturday, December 18, 2010

Wajood

आज सुबह जब आइना देखा, चेहरा कुछ खामोश था.....
जाने क्या वो सोच रहा था , जाने क्यूँ मदहोश था......

लबो पे इक मुस्कान सी छाई, जैसे तू मेरे जेहन में आई....
काँप गया तन मन मेरा, जैसे तू मुझसे मिलने आई..

तड़प उठा छूने को दिल, तुझको क्यूँ सरगोशी से.....
देख नहीं पाया मैं तुझको, चुपके से ख़ामोशी से....

हाथ बढ़ाये थे मैंने जब , आइना भी मुझसे बोल उठा....
तू तो पगला है दीवाने, क्या मुझको भी पागल समझ चला......

तू प्यार किसी को करता है, क्यूँ मुझको देख हँसता है..
क्यूँ तू अपने अक्स में, उसको ढूढ़ा करता है....

तुझे चहकता देख कर, मैं भी हँस पड़ता हूँ ....
झूठी तसवीर उसकी , मैं तुझको दिखलाया करता हूँ.....

अब कैसे समझाउं मैं उसको (आईने को), मैं तो तुझ में ही खोया हूँ....
अब तो मेरा वजूद ही क्या है, तू ही तो मेरा सरमाया है....




VEER