Sunday, October 7, 2007

ख्वाहिश




क्या मेरे लब इस काबिल थे जो तेरे लबों को चूम सके,
क्या मेरे हाथ इस काबिल थे जो तेरे हाथो को थाम सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरा दामन थाम सके,
क्या मेरे अश्क इस काबिल थे जो तेरे अश्कों को रोक सके,
क्या मेरी नज़र इस काबिल थी जो तेरी नज़रों को देख सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरी आँखों में हम डूब सके,
क्या मेरी याद इस काबिल थी जो तेरी यादों को भुला सके,
क्या मेरा अक्स इस काबिल था जो तेरे सामने ठहर सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरे साये से हम बात करे,
क्या मेरी ख़ुशी इस काबिल थी जो तेरी ख़ुशी में नाच सके,
क्या मेरा दर्द इस काबिल था जो तेरे दर्द को समझ सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरे दर्द में रो सके,
क्या मेरी रूह इस काबिल थी जो तेरी रूह में समां सके,
क्या मेरे ख्वाब इस काबिल थे जो तुझे नींद में हँसा सके,

फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम खुद को तुझ पे मिटा सके




VEER

my first poem "Teri Yaad"


आज भी मेरा मन जाने क्यों जीने को नही करता है ,

फिर भी तेरी बातें सोचकर ये चेहरा हँसा करता है,

आज भी ये दिल जाने क्यों सपनो में खोया रहता है,

छुप छुप के किसी कोने में ये आज भी रोया करता है,

मेरा ही अक्स जाने क्यों अक्सर मुझसे ये सवाल करता है,

आज भी क्यों वो मुझमें तेरा ही चेहरा देखा करता है,

जाने अन्जाने में ये दिल बस तेरी ही बातें करता है,

जाने क्यों कुछ सोचकर फिर शरमा जाया करता है ,

आगे बढ़ते हाथ जाने क्यों रूक जाया करते है,

शायद कुछ अनहोनी सोंचकर कुछ भी छूने से डरते है,

एक ख़याल मेरे जेहन में आज भी उठा करता है,

तू ही मेरा वजूद है और ये दिल तुझसे ही डरता रहता है,

जाने क्यों ऐसा होता है,

क्या रात के बिना सवेरा भी कही हुआ करता है........


VEER