Sunday, October 7, 2007

ख्वाहिश




क्या मेरे लब इस काबिल थे जो तेरे लबों को चूम सके,
क्या मेरे हाथ इस काबिल थे जो तेरे हाथो को थाम सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरा दामन थाम सके,
क्या मेरे अश्क इस काबिल थे जो तेरे अश्कों को रोक सके,
क्या मेरी नज़र इस काबिल थी जो तेरी नज़रों को देख सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरी आँखों में हम डूब सके,
क्या मेरी याद इस काबिल थी जो तेरी यादों को भुला सके,
क्या मेरा अक्स इस काबिल था जो तेरे सामने ठहर सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरे साये से हम बात करे,
क्या मेरी ख़ुशी इस काबिल थी जो तेरी ख़ुशी में नाच सके,
क्या मेरा दर्द इस काबिल था जो तेरे दर्द को समझ सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरे दर्द में रो सके,
क्या मेरी रूह इस काबिल थी जो तेरी रूह में समां सके,
क्या मेरे ख्वाब इस काबिल थे जो तुझे नींद में हँसा सके,

फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम खुद को तुझ पे मिटा सके




VEER

3 comments:

zama azmath said...

Hi,
i just went through this..and to say ..just loved it...it was direct from heart without ne difficult words to understand..very cool composition.....

hamare tharaf se ek nazm dedicated to veer......

kuch aaisa ristha bhi hai zamane mein...
jo na dosthi ...........na mohabbath keh laye...
ke ek misra mere khayaloon mein nazar aaye....
ke unke kalaam mein ghazal bhi bhar jaaye......

Unknown said...

क्या मेरा दर्द इस काबिल था जो तेरे दर्द को समझ सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरे दर्द में रो सके,...bahut achcha laga

veer said...

thanx to zama and faizan......really bahut achha lagta hai jab aapko koi padhta hai...bhale hi aapne kitna bhi boring likha ho.......really tahe dil se dhanyawad........