Sunday, November 18, 2007

मैं अल्फा की गलियों में

मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ये बातें करता हूँ,
चुपके चुपके अक्सर ही कुछ सोचा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ही जाया करता हूँ,
आते जाते हँसते गाते सबको देखा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
आज शायद मैं जान गया मैं ऐसा क्यों करता था.......
आज मैं समझ गया, की मैं सिर्फ दिल को समझाया करता था,
मैं अप्ल्हा की गलियों में अक्सर तन्हाई को सुनता था,
वो सिर्फ तेरी ही बातें करती थी,
वो सिर्फ तेरी ही याद दिलाती थी..........
कहती थी मुझसे वो, 'वीर' नहीं हो सकती वो तेरी.........
.पर ऐसा क्या हुआ, क्यूँ हुआ, कैसे हुआ........
आज मेरे आँखों में आंसू आ जाया करते है,
जब तुझसे बातें करता हूँ........
शायद मेरे अश्क किसी से कहते है,
शायद तन्हाई पर हँसते है .......


VEER

1 comment:

Anonymous said...

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