Sunday, October 30, 2011

तुम या मैं

यूँ मेरे दिल में क्यूँ तमन्ना होती ,
जो तुम हर जर्रे में ना होती...

मैं खुद को देखता रहता ,
जो तुम आईना होती.....

लफ्ज़  गिरते तो बहुत मेरे,
जो तुम असना होती.....

कब से बहके कदम क्यूँ मुड़े होते,
जो तुम कशिश ना होती.....


VEER

Sunday, October 16, 2011

फितरत

मैं अक्सर छत पे खड़े होके परिंदों को देखता रहता, 
सोचता आखिर कहाँ जाते हैं रोज, नई नई शक्लों में..... 

मैं कई मर्तबा हवा में हाथ लहरा देता, 
इक जवाब की आस में, जो कभी मिलता कभी नहीं....

मैं अक्सर काफिलों का नाम रखता, 
भीड़ में बुलाने की खातिर, मगर शायद नाम बदल जाते....

मैं कभी कभी उनके करीब होना चाहता,
दो पल जीने को, पर हरदम मुझे झिटक देते .....
शायद मेरे रंग अलग था.................................

 VEER