वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें...
कभी किसी से कुछ ना कहती.. बस चुपचाप देखती रहती सब
कई मर्तबा मैं उसे खुद से बातें करते सुनता था..
सबको पागल कहती थी शायद .....
जेहन में बस कुछ बिसरी याद है उसकी..उसके उस भोले पागलपन की ...
कभी कभी कहती कांटे चुभना प्यारा होता है..दर्द भले है पर अपना होता है ...
उसे फूलों से प्यार न था शायद,
सब उसको पागल बुढ़िया कहते थे...
जेहन में बस कुछ बिसरी याद है उसकी..उसके उस भोले पागलपन की ...
कभी कभी कहती कांटे चुभना प्यारा होता है..दर्द भले है पर अपना होता है ...
उसे फूलों से प्यार न था शायद,
सब उसको पागल बुढ़िया कहते थे...
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
कई दफा मेरा मन उस अँधेरे कमरे में जाने को करता ...
पर अम्मा के डर से कभी जा न सका , वो बुढ़िया से डरती थी शायद..
मैं बुढ़िया से कहता...काकी अँधेरा क्यूँ है...
काकी कहती रौशन जिंदगी की खातिर.....
मैं छोटा था ...कुछ समझ ना आता मुझे
मुझे भी लगा...बुढ़िया पागल है..
मुझे भी लगा...बुढ़िया पागल है..
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
फिर मैं बड़ा हो गया, चार पैसे भी कमाने लगा...
खूब रंगा दुनिया सब रंगों में, हर लम्हे को जीता बस चला जाता... चला जाता ...मगरूर
अब तो उस बुढ़िया की याद भी नहीं आती थी, पागल ही तो थी शायद वो....कभी जीना ही न सीखा उसने
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
आज औंधे मुंह लेटा हूँ अँधेरे में चुप चाप, बुढ़िया की याद आ गयी है..
समझ भी गया हूँ रौशन जिंदगी के अंधेरों और फूलो के अल्हडपन को भी,
पर देर हो गयी है शायद......
पर देर हो गयी है शायद......
वहां उस पिछवाड़े में अंधेरा कमरा तो है...पर वो बुढ़िया अब नहीं है...
जिसे सब पागल कहते थे.....पर किसी को कुछ न कहा उसने...
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
कभी किसी से कुछ ना कहती.. बस चुपचाप देखती रहती सब
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