Tuesday, July 24, 2012

Paagal Budhiya Revisited

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें...
कभी किसी से कुछ ना कहती.. बस चुपचाप देखती रहती सब
कई मर्तबा मैं उसे खुद से बातें करते सुनता था..
सबको पागल कहती थी शायद .....
जेहन में बस कुछ बिसरी याद है उसकी..उसके उस भोले पागलपन की ...
कभी कभी कहती कांटे चुभना प्यारा होता है..दर्द भले है पर अपना होता है ...
उसे फूलों से प्यार न था शायद,
सब उसको पागल बुढ़िया कहते थे...
वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें

कई दफा मेरा मन उस अँधेरे कमरे में जाने को करता ...
पर अम्मा के डर से कभी जा न सका , वो बुढ़िया से डरती थी शायद..
मैं बुढ़िया से कहता...काकी अँधेरा क्यूँ है...
काकी कहती रौशन जिंदगी की खातिर.....
मैं छोटा था ...कुछ समझ ना आता मुझे
मुझे भी लगा...बुढ़िया पागल है..

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें

फिर मैं बड़ा हो गया, चार पैसे भी कमाने लगा...
खूब रंगा दुनिया सब रंगों में, हर लम्हे को जीता बस चला जाता...  चला जाता ...मगरूर  
अब तो उस बुढ़िया की याद भी नहीं आती थी, पागल ही तो थी शायद वो....कभी जीना ही न सीखा उसने

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
आज औंधे मुंह लेटा हूँ अँधेरे में चुप चाप, बुढ़िया की याद आ गयी है..
समझ भी गया हूँ रौशन जिंदगी के अंधेरों और फूलो के अल्हडपन को भी,
पर  देर हो गयी है शायद......
वहां उस पिछवाड़े में अंधेरा कमरा तो है...पर वो बुढ़िया अब नहीं है...
जिसे सब पागल कहते थे.....पर किसी को कुछ न कहा उसने...

वहां उस पिछवाड़े में एक अँधेरा कमरा था...एक बुढ़िया रहती थी उसमें
कभी किसी से कुछ ना कहती.. बस चुपचाप देखती रहती सब


VEER

Sunday, April 1, 2012

बस तू ही मौला..

तेरी आयत  लिए भटकता फिरता रहा हूँ मैं....
कभी आती कभी जाती साँसों से इबादत करता रहा हूँ मैं...

उसी से दूर रहा हूँ जो चाहत थी कभी...
बस  मेरे रहनुमा हर पल मरता रहा हूँ मैं.....

ख़ुशी चीज़ क्या है ये मैंने जाना नहीं था...
पर उसकी दी आँखों से अश्क पोछता रहा हूँ मैं....

बाद मुद्दत जो कभी तुमसे मुलाक़ात हुयी तो....
दो लफ्ज़ कह न सका बस देखता रहा हूँ मैं.....


VEER

Saturday, March 31, 2012

पागल मन

देख रे मन तू मेरे, ऐसे न तू समझा मुझे...
नादान मुझे तू जानकर, ऐसे न तू बहला मुझे .....
देख रे मन तू मेरे...............


तकलीफ देती है मुझे उसके चेहरे की खामोशियाँ,
मासूमियत कहीं खो गयी परेशानियों  के दरमियाँ....


तेरे आंसुओ की पुकार पे, इक पल तो खो सा जाता हूँ...
पर उसकी यादों की फुहार से, तन्द्रा से जग जाता हूँ....
देख रे मन तू मेरे..............

स्वार्थी पतझड़ भी देखो, लूटकर तो जाता है .....
पर नई उमंगो और  तरंगो की, कोपले दे जाता है....


हम तुम तो हर पल साथ है पर उसकी कुछ और बात है..
तू अगर टूटा भी तो मैं तुझको समेट लाऊंगा,
पर उसके टूटने से तो खुद भी बिखरने से न बच पाउँगा...
देख रे मन तू मेरे..............


VEER

Monday, March 19, 2012

बहाव

बड़ी मुद्द्त बाद कलम उठायी है...लिखता हूँ तो तुम्हारी यादें छलकती हैं....


हर एक पत्ता गिर गया पर मौसम क्यूँ नहीं बदला,
तन्हा बदल भी बरस गया पर अम्बर क्यूँ नहीं बदला......

लहर उठी फिर झुकी चाँद को पुकार कर,
घरौंदा सब बह गया पर सागर क्यूँ नहीं बदला.....


घर उजड़े लोग बिसरे खुशियाँ रोयी  सो अलग,
रस्ते भी वीरान हुए पर शहर क्यूँ नहीं बदला.....

नज़र मिली धड़कन थमी होश बेखबर हुए....
पन्ने सब पलट गए पर किस्सा क्यूँ नहीं बदला....

VEER




Sunday, October 30, 2011

तुम या मैं

यूँ मेरे दिल में क्यूँ तमन्ना होती ,
जो तुम हर जर्रे में ना होती...

मैं खुद को देखता रहता ,
जो तुम आईना होती.....

लफ्ज़  गिरते तो बहुत मेरे,
जो तुम असना होती.....

कब से बहके कदम क्यूँ मुड़े होते,
जो तुम कशिश ना होती.....


VEER

Sunday, October 16, 2011

फितरत

मैं अक्सर छत पे खड़े होके परिंदों को देखता रहता, 
सोचता आखिर कहाँ जाते हैं रोज, नई नई शक्लों में..... 

मैं कई मर्तबा हवा में हाथ लहरा देता, 
इक जवाब की आस में, जो कभी मिलता कभी नहीं....

मैं अक्सर काफिलों का नाम रखता, 
भीड़ में बुलाने की खातिर, मगर शायद नाम बदल जाते....

मैं कभी कभी उनके करीब होना चाहता,
दो पल जीने को, पर हरदम मुझे झिटक देते .....
शायद मेरे रंग अलग था.................................

 VEER



Thursday, August 25, 2011

कण कण में हुए व्याप्त संत तुम याद बहुत अब आओगे.....