Sunday, October 16, 2011

फितरत

मैं अक्सर छत पे खड़े होके परिंदों को देखता रहता, 
सोचता आखिर कहाँ जाते हैं रोज, नई नई शक्लों में..... 

मैं कई मर्तबा हवा में हाथ लहरा देता, 
इक जवाब की आस में, जो कभी मिलता कभी नहीं....

मैं अक्सर काफिलों का नाम रखता, 
भीड़ में बुलाने की खातिर, मगर शायद नाम बदल जाते....

मैं कभी कभी उनके करीब होना चाहता,
दो पल जीने को, पर हरदम मुझे झिटक देते .....
शायद मेरे रंग अलग था.................................

 VEER



2 comments:

Amit Sharma said...

पञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
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"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"

Jelle Akremn said...

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