मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ये बातें करता हूँ,
चुपके चुपके अक्सर ही कुछ सोचा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ही जाया करता हूँ,
आते जाते हँसते गाते सबको देखा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
आज शायद मैं जान गया मैं ऐसा क्यों करता था.......
आज मैं समझ गया, की मैं सिर्फ दिल को समझाया करता था,
मैं अप्ल्हा की गलियों में अक्सर तन्हाई को सुनता था,
वो सिर्फ तेरी ही बातें करती थी,
वो सिर्फ तेरी ही याद दिलाती थी..........
कहती थी मुझसे वो, 'वीर' नहीं हो सकती वो तेरी.........
.पर ऐसा क्या हुआ, क्यूँ हुआ, कैसे हुआ........
आज मेरे आँखों में आंसू आ जाया करते है,
जब तुझसे बातें करता हूँ........
शायद मेरे अश्क किसी से कहते है,
शायद तन्हाई पर हँसते है .......
VEER
This the portal where i express my thoughts which may not be unique but my empty mind gets filled by them. So i come here and give them some better meaning.
Sunday, November 18, 2007
Saturday, November 17, 2007
मैं भी ना
कल फिर से
मेरे हाथों में उसका हाथ था
वो हाथ जो छूट गया था
सफर में कहीं चलते हुए
मैं आज भी वहीं पर था
शायद इसीलिए तो वो वापस आ गयी थी !
उसका हाथ मेरे जिस्म क लिए रूह था
तभी तो बिना धड़कन के मैं जिंदा था
लब खामोश थे, आँखों ने सब कुछ कहा
मगर मैं रोया नहीं .....रोता कैसे
मेरी आँखों ने उसके हाथों का
बोसा जो ले लिया था
दिल सब कुछ भूल चूका था
जब मुझे छोड़ कर वो चली गयी थी
मेरे लिए तो यही ख़ुशी थी
की वो फिर से मेरे पास आ गयी थी !
मगर तभी...."साहिल" ...आवाज़ आई
जागा तो खुद से सवाल किया अरे!!!!
मैं बालकनी पे....और ....वो...
मैं खामोश हो गया कुछ पलों के लिए मगर फिर
अश्क उबल पड़े सैलाब से
और कहने लगेउफ़....."शाहीन " तेरी यादें भी ना
by Mr. Faizan......he is really a very nice person ...i dont know kisi ko ye poem achhi lage ya na...bas mujhe heart touching lagi....to maine ise apne blog mein post kiya....aap bhi jaroor bataye kaisi lagi aapko......
VEER
मेरे हाथों में उसका हाथ था
वो हाथ जो छूट गया था
सफर में कहीं चलते हुए
मैं आज भी वहीं पर था
शायद इसीलिए तो वो वापस आ गयी थी !
उसका हाथ मेरे जिस्म क लिए रूह था
तभी तो बिना धड़कन के मैं जिंदा था
लब खामोश थे, आँखों ने सब कुछ कहा
मगर मैं रोया नहीं .....रोता कैसे
मेरी आँखों ने उसके हाथों का
बोसा जो ले लिया था
दिल सब कुछ भूल चूका था
जब मुझे छोड़ कर वो चली गयी थी
मेरे लिए तो यही ख़ुशी थी
की वो फिर से मेरे पास आ गयी थी !
मगर तभी...."साहिल" ...आवाज़ आई
जागा तो खुद से सवाल किया अरे!!!!
मैं बालकनी पे....और ....वो...
मैं खामोश हो गया कुछ पलों के लिए मगर फिर
अश्क उबल पड़े सैलाब से
और कहने लगेउफ़....."शाहीन " तेरी यादें भी ना
by Mr. Faizan......he is really a very nice person ...i dont know kisi ko ye poem achhi lage ya na...bas mujhe heart touching lagi....to maine ise apne blog mein post kiya....aap bhi jaroor bataye kaisi lagi aapko......
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Sunday, October 7, 2007
ख्वाहिश

क्या मेरे लब इस काबिल थे जो तेरे लबों को चूम सके,
क्या मेरे हाथ इस काबिल थे जो तेरे हाथो को थाम सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरा दामन थाम सके,
क्या मेरे अश्क इस काबिल थे जो तेरे अश्कों को रोक सके,
क्या मेरी नज़र इस काबिल थी जो तेरी नज़रों को देख सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरी आँखों में हम डूब सके,
क्या मेरी याद इस काबिल थी जो तेरी यादों को भुला सके,
क्या मेरा अक्स इस काबिल था जो तेरे सामने ठहर सके,
क्या मेरा अक्स इस काबिल था जो तेरे सामने ठहर सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है तेरे साये से हम बात करे,
क्या मेरी ख़ुशी इस काबिल थी जो तेरी ख़ुशी में नाच सके,
क्या मेरा दर्द इस काबिल था जो तेरे दर्द को समझ सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम तेरे दर्द में रो सके,
क्या मेरी रूह इस काबिल थी जो तेरी रूह में समां सके,
क्या मेरे ख्वाब इस काबिल थे जो तुझे नींद में हँसा सके,
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम खुद को तुझ पे मिटा सके
फिर भी जाने क्यों ख्वाहिश है हम खुद को तुझ पे मिटा सके
VEER
my first poem "Teri Yaad"

आज भी मेरा मन जाने क्यों जीने को नही करता है ,
फिर भी तेरी बातें सोचकर ये चेहरा हँसा करता है,
आज भी ये दिल जाने क्यों सपनो में खोया रहता है,
छुप छुप के किसी कोने में ये आज भी रोया करता है,
मेरा ही अक्स जाने क्यों अक्सर मुझसे ये सवाल करता है,
आज भी क्यों वो मुझमें तेरा ही चेहरा देखा करता है,
जाने अन्जाने में ये दिल बस तेरी ही बातें करता है,
जाने क्यों कुछ सोचकर फिर शरमा जाया करता है ,
आगे बढ़ते हाथ जाने क्यों रूक जाया करते है,
शायद कुछ अनहोनी सोंचकर कुछ भी छूने से डरते है,
एक ख़याल मेरे जेहन में आज भी उठा करता है,
तू ही मेरा वजूद है और ये दिल तुझसे ही डरता रहता है,
जाने क्यों ऐसा होता है,
क्या रात के बिना सवेरा भी कही हुआ करता है........
VEER
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