Sunday, November 18, 2007

मैं अल्फा की गलियों में

मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ये बातें करता हूँ,
चुपके चुपके अक्सर ही कुछ सोचा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
मैं अल्फा की गलियों में अक्सर ही जाया करता हूँ,
आते जाते हँसते गाते सबको देखा करता हूँ,
मैं भी कितना पागल हूँ,
जाने क्यों ऐसा करता हूँ.......................
आज शायद मैं जान गया मैं ऐसा क्यों करता था.......
आज मैं समझ गया, की मैं सिर्फ दिल को समझाया करता था,
मैं अप्ल्हा की गलियों में अक्सर तन्हाई को सुनता था,
वो सिर्फ तेरी ही बातें करती थी,
वो सिर्फ तेरी ही याद दिलाती थी..........
कहती थी मुझसे वो, 'वीर' नहीं हो सकती वो तेरी.........
.पर ऐसा क्या हुआ, क्यूँ हुआ, कैसे हुआ........
आज मेरे आँखों में आंसू आ जाया करते है,
जब तुझसे बातें करता हूँ........
शायद मेरे अश्क किसी से कहते है,
शायद तन्हाई पर हँसते है .......


VEER

Saturday, November 17, 2007

मैं भी ना

कल फिर से
मेरे हाथों में उसका हाथ था
वो हाथ जो छूट गया था
सफर में कहीं चलते हुए
मैं आज भी वहीं पर था
शायद इसीलिए तो वो वापस आ गयी थी !
उसका हाथ मेरे जिस्म क लिए रूह था
तभी तो बिना धड़कन के मैं जिंदा था
लब खामोश थे, आँखों ने सब कुछ कहा
मगर मैं रोया नहीं .....रोता कैसे
मेरी आँखों ने उसके हाथों का
बोसा जो ले लिया था
दिल सब कुछ भूल चूका था
जब मुझे छोड़ कर वो चली गयी थी
मेरे लिए तो यही ख़ुशी थी
की वो फिर से मेरे पास आ गयी थी !
मगर तभी...."साहिल" ...आवाज़ आई
जागा तो खुद से सवाल किया अरे!!!!
मैं बालकनी पे....और ....वो...
मैं खामोश हो गया कुछ पलों के लिए मगर फिर
अश्क उबल पड़े सैलाब से
और कहने लगेउफ़....."शाहीन " तेरी यादें भी ना


by Mr. Faizan......he is really a very nice person ...i dont know kisi ko ye poem achhi lage ya na...bas mujhe heart touching lagi....to maine ise apne blog mein post kiya....aap bhi jaroor bataye kaisi lagi aapko......
VEER